संहारक :- Awakening of Demon God

"दमयंती...."

शांभव को समझ नहीं आया कि दमयंती की बातों पर क्या कहें? हां, ये सत्य था कि वो वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट नहीं था, परन्तु सत्य यही था कि उसने स्वयं भी ये स्वीकार कर लिया था कि अब वो एक साधारण मनुष्य था, जो अपनी दिव्यता खो चुका था। ऐसे में दमयंती का ये आश्वासन, ये दृढता, उसकी उन आशाओं को जगा रही थी, जिन्हें उसने स्वयं अपने हृदय के किसी वीराने में दफ्न कर दिया था।

"उचित है... मैं प्रतीक्षा करूंगा।" शांभव फीकेपन से मुस्कुराते हुए बोला। वो जानता था कि शायद उसका उपचार सिर्फ एक छलावा है, क्योंकि उपचार तो रोगियों का किया जाता है, लेकिन अपने मित्रों के मन में अपनी चिंता देखकर वह मन ही मन प्रसन्न था।

"तो... अब आगे क्या सोचा है? इस माह के अंत में ही देवपूजा है और..." आलोक ने प्रश्न किया तो सभी लोग वास्तविकता के धरातल पर उतरकर आए।

"तुम जानते ही हो कि देवपूजा में क्या होने वाला है।" शांभव ने मुस्कुराते हुए कहा। इस समय उसके होंठों पर एक उपहासयुक्त मुस्कान थी, जो वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति ने पहचानी।

देवपूजा द्रुमक कबीले का एक वार्षिक अनुष्ठान था, जिसमें कुलदेवता की पूजा के साथ साथ द्रुमक कबीला अपनी शक्ति का प्रदर्शन भी करता था। यह रीति एक बहुत लंबे समय से चली आ रही थी और यद्यपि इस समय द्रुमक कबीला अपने स्वर्णकाल की तुलना में बहुत अशक्त हो चुका है, परन्तु उनका वैभव और शक्ति अब भी साम्राज्य की अग्रणी शक्तियों में गिनी जाती थी।

इस देवपूजा में द्रुमक कबीले के वयस्क युवा अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थे, जिससे भविष्य में कबीले में उनके पद और शक्ति का निर्धारण होता था। जहां संतोषजनक प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति को कबीले में विशेष पद और सम्मान प्राप्त होती था, वहीं संतोषजनक प्रदर्शन न कर पाने वाले युवकों को कबीले में निम्नस्तरीय कार्यों में लगा दिया जाता था और शांभव की स्थिति इस समय बहुत ही विशेष थी। जहां कल तक वो कबीले का उत्तराधिकारी था, वहीं आज उसके सिर पर निष्कासन का साया मंडरा रहा था।

"क्या प्रभाकर काका की ओर से कोई संदेश आया?" प्रभा ने चिंतित स्वर में शांभव से प्रश्न किया।

"नहीं, तुम पिताजी का स्वभाव

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